२८. दिव्य कृषक

 

द्युमान की वृक्षों के साथ बचपन से ही आत्मीयता थी। डी. एन हाईस्कूल, आणंद में बोये गये और छुट्टियों में पाँच-छ: मील पैदल चलकर केवल वृक्षों को पानी पिलाने आनेवाले किशोर के हृदय में धरती के प्रति, वृक्षों के प्रति असीम प्रेम था, वह उनके समग्र जीवन भर बढ़ता गया। पाटीदार के रूप में कृषि इनका परम्मरागत व्यवसाय था। धरती के साथ उनका जन्म से नाता था, परन्तु आश्रम में आने के बाद अनेक प्रवृत्तियों में व्यस्त रहने के कारण धरती के साथ आत्मियता व्यक्त करने का उन्हें समय ही नहीं मिलता था। परन्तु श्रीमाताजी का कार्य करनेवाले, उन्हें समर्पित, उनके बालकों में जो सुषुप्त बीज पड़े होते हैं उसे अचूक अंकुरित और विकसित होने का अवसर और वातावरण मिल ही जाता है। फिर चाहे बाहर के कार्यों का दबाव इतना अधिक होता है कि अपने अन्दर की शक्तियों को प्रगट करने का समय नहीं मिल रहा है, ऐसी स्थिति के बावजूद भी ये शक्तियों प्रगट हुए बगैर नहीं रहती हैं। यही तो श्रीमाताजी की विशिष्टता है। इसी प्रकार अत्यधिक कार्यों के बीच भी चम्पकलाल ने उत्तम चित्र बनाए। पूजालाल ने सुन्दर काव्यों का सृजन किया। अम्बुभाई पुराणी ने श्रीअरविंद के साहित्य को गुजराती रूप दिया और अच्छे गधकार के रूप में जाने गये। नीरोदबरन डॉक्टर होने के साथ उत्कृष्ट कवि बने। इस प्रकार प्रत्येक साधक की आंतरिक शक्ति को श्रीमाताजी प्रगट होने का अवसर देती थीं। द्युमान के सम्बन्ध में भी यही हुआ। उनका धरती से प्रगाढ़ नाता था। यह नाता आश्रम में आकर इतना मजबूत बना कि धरतीमाता प्रसन्न होकर, अपने इस लाडले पुत्र के समक्ष अपनी समृद्धि प्रगट करती रहीं।

आश्रम के लगभग दस किलोमीटर दूर एक सरोवर था। वहाँ आसपास की जमीन उबड़-खाबड़, पथरीली और वीरान थी। आश्रम

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ने इस जमीन को खरीद लिया। आजकल यह 'लेक-एस्टेट' के रूप में जानी जाती है। सुन्दर बाग बगीचे से नंदनवन जैसी है, पर उस समय यह जमीन ऐसी पथरीली और बंजर लगती थी कि देखनेवालों को ऐसा लगता था कि यह जमीन किसलिये खरीदी गई होगी? एक बार युमान बाहर से आए मेहमानों को लेकर सरोवर पर गये थे, तब उस जमीन पर थे क्या - क्या पैदा करना चाहते हैं और इस जमीन को वे कैसे उपयोगी बनाना चाहते हैं, इसकी बातें उन मित्रों से उत्साहपूर्वक - कही। तब मित्रों ने कहा, 'ऐसी पथरीली जमीन में क्या उगेगा? यह तो एकदम बेकार है। ' यह सुनकर द्युमान तो कुछ नहीं बोले, पर उनके सहयोगियों ने कहा, 'अच्छी उपजाऊ जमीन पर तो सब कोई पैदावार कर सकते हैं, पर हमारे आश्रम की यही विशेषता है कि वह असम्भव को भी सम्भव बना देता है। '

यह सुनकर उन मित्रों को लगा कि, 'यह मनुष्य अपनी बड़ाई कर रहा है। ' पर भविष्य ने बता दिया कि यह वास्तविकता थी। उस बंजर जमीन पर द्युमान ने साधना की। उस जड़ जमीन में उन्होंने चैतन्य का आविर्भाव किया। अथक परिश्रम करके उसे खेती के योग्य बना दिया। उसमें फलों के वृक्ष बोए, परन्तु बाद में ग्लोरिया फार्म का काम बढ़ने से यह 'लेक-एस्टेट' और उसकी जमीन उन्होंने दूसरे कार्यकर्ताओं को सौंप दी। आज तो वह बंजर जमीन उपवन बन गई है। हज़ारों नारियल के पेड़ हैं, नींबू-आम के पेड़ हैं। फूलों के सुन्दर बगीचे हैं जिसके ताजे फूलों से श्रीअरविंद-श्रीमाताजी की समाधि का शृंगार होता है। इसके उपरांत एक छोटी गौशाला भी वहाँ चल रही है।

एक बार द्युमान ने भोजनालय के अपने साथी वेदप्रकाश से कहा, 'चलो, मेरे साथ, हमें एक जमीन देखने जाना है।' आश्रम से लगभग १७ किलोमीटर दूर, लगभग सौ एकड़ से अधिक यह जमीन थी। वेदप्रकाशजी लिखते हैं कि, 'जमीन सूखी, प्यासी, उजाड़, चेतनारहित थी l इस जमीन पर शायद ही किसी प्राणी या मनुष्य के

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पैर पड़े होंगे। द्युमान उस मूक जमीन के टुकड़े पर खड़े रहे। थोड़ी देर में मैंने आश्चर्य से देखा कि वे स्वप्नसंगीत की सीटी बजाने लगे। उन्होंने इस जमीन की चुप्पी के हृदय में स्थित किसी ध्वनि को सुना। उन्होंने उस मृदु मंद अभीप्सा को श्रीमाताजी के चरणों में रख दिया। जब कि मैं तो सहज रूप से खड़ा था, वह जमीन मुझे एकदम ठंडीगार लगी रही थी। मेरा मन शून्य हो गया था और उनके स्वन में उलझ गया था। परन्तु द्युमानभाई अत्यन्त आनन्द में थे जैसे उन्हें कोई अमूल्य खजाना मिल गया हो।

द्युमान ने श्रीमाताजी को इस विषय में बताया। श्रीमाताजी ने स्पष्ट रूप से कह दिया कि, 'मेरे पास इस जमीन को खरीदने के पैसे नहीं हैं।' कुछ रुक कर फिर उन्होंने अनेक तीखे प्रश्न किये। द्युमान पर काम का अत्याधिक बोझ था, इसलिये माताजी अब नया काम लेने को तैयार नहीं थी। पर द्युमान इस जमीन के लेने के विषय में दृढ़ संकल्प थे। उन्होंने श्रीमाताजी के तीखे प्रश्नों का विनम्रता से उत्तर दिया और कहा, 'पैसे का प्रबन्ध मैं कर लूँगा।' श्रीमाताजी ने सहमति दे दी। बस, द्युमान को इतना ही चाहिये था। श्रीमाताजी का आशीर्वाद मिलते ही वे प्रसन्न हो गये, जैसे उन्हें हमेशा के लिये एक अमूल्य खजाना मिल गया। श्रीमाताजी ने इस जमीन को नाम दिया 'ग्लोरियालेंड' - 'द ग्लोरी ऑन अर्थ'। अब वे इस जमीन के टुकड़े में अंतर्निहित ऐश्वर्य को प्रगट करने के काम में लग गये। जिस जिसने सुना कि द्युमान इस जमीन पर काम कर रहे हैं उन्होंने द्युमान को पागल धुनी आदमी कहा। उनकी इस धुन को देखकर लोग हँसने लगे। लगभग प्रतिदिन सभी उनको यही कहते कि, 'ऐसी जमीन पर कुछ पैदा होगा? यह तो निरा पागलपन है। बिलकुल व्यर्थ परिश्रम कर रहे हो!' कितने ही वर्षों तक लोगों के मुंह से उन्होंने ये बातें सुनी पर द्युमान अपने संकल्प पर अडिग रहे। अकेले जूझते रहे। इस बंजर धरती की गहराई में स्थित सौन्दर्य को बाहर लाने के लिए कठोर परिश्रम करते रहे। वे प्रतिदिन 'ग्लोरिया' जाते। वर्षा हो, ठंड हो या

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झुलसानेवाली गर्मी हो, एक भी दिन ऐसा नहीं होता था कि वे।'ग्लोरिया' न गये हों। कभी-कभी तो दिन में दो बार जाते थे। इसमें रविवार की छुट्टी भी नहीं होती थी। भूमि को तैयार होने में वर्षों लग गये, भूमि की आत्मा जाग उठी। भूमि, आत्मा और सूर्य जैसे एक हो गये। उन्होंने इस भूमि में मानवजाति के लिये और भविष्य के लिये श्रीमाताजी का संदेश सुनाया, 'जहरीले रसायन और दवाइयों से पृथ्वी माता को दूषित मत करना. ' और इस संदेश के अनुसार उन्होंने इस भूमि पर वर्षों पहले खेती की। धरती को प्रसन्न करके ढ़ेरों फसल प्राप्त की। श्रीमाताजी ने सम्मति देते समय आरम्म में ही शर्त रखी थी कि रासायनिक खाद से खेती नहीं करनी है। द्युमान ने इस शर्त का पालन किया।

एक पत्र में उन्होंने लिखा था, 'ग्लोरिया' में और जड़ पदार्थ में योग का एक नया अध्याय प्रारम्भ किया। हमने रासायनिक खाद का उपयोग नहीं किया। जंतुनाशक दवाइयों का उपयोग नहीं किया, फिर भी अच्छी फसल प्राप्त की। श्रीमाताजी ने मुझे एक बार पूछा था कि,  'द्युमान, तुम विषैली दवाइयों का उपयोग तो नहीं करते हो न?' 'नहीं माताजी, गोबर का खाद, अन्य देशी खाद, पानी और सूर्यप्रकाश यही हमारे फसल उगाने के साधन हैं। ' हमने देशी खाद का उपयोग करके जल और सूर्य की सहायता से धरतीमाता की सेवा की, उसकी चेतना जगायी है। उसे उर्वरा बनाया है, विकृत नहीं किया है। इसलिये वह हमें बहुत अच्छी फसल देती है। 'ग्लोरिया' की जमीन में धान बहुत होता था, द्युमान ने एक वर्ष में दो बार धान की फसल ली। इससे चावल का उत्पादन दुगुना हो गया। आश्रम की आवश्यकता से अधिक चावल होने से बाजार में बेचना प्रारम्भ किया, इससे आमदनी भी हो गई। यधपि वहाँ की जलवायु गेहूँ के लिये ठीक नहीं थी फिर भी द्युमान ने वहाँ गेहूँ बोने के प्रयोग किये और गेहूँ का उत्पादन भी होने लगा। आलू उगाने के प्रयोग किये तो आलू भी होने लगे। इसके उपरांत केले, आम, अन्य

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फल, शाकभाजी और नारियल आदि अच्छे प्रमाण में उत्पन्न हो रहा है। आश्रम की आवश्यकता के बाद जो अधिक पैदा होता उसे बाहर बेचा जाता है। धरतीमाता की अनन्य भाव से सेवा करने से वह प्रसन्न होती है तो धनधान्य के ढ़ेर कर देती है, इसका प्रत्यक्ष उदाहरण द्युमान और उनके साथियों की सेवा से होनेवाला 'ग्लोरिया' का उत्पादन मान सकते हैं।

आज यह 'ग्लोरिया फार्म' देश विदेश में प्रसिद्ध है। कृषि विशेषज्ञ विशेष तौर पर यहाँ आते हैं। भारत की केन्द्र सरकार कै कृषि विभाग के अधिकारी 'ग्लोरिया' यदा-कदा आकर, किसी भी रासायनिक खाद का उपयोग किये बगैर इतनी अधिक फसल देखकर आश्चर्य व्यक्त करते हैं। 'ग्लोरिया' की जमीन खरीदने के बाद  द्युमान ने आसपास के खेत भी खरीद लिये। उसमें 'अन्नपूर्णा फार्म' भी था। यह जब खरीदी थी तब यह जमीन भी बंजर थी। द्युमान और उनके सहयोगियों ने परिश्रम करके धरती को मुलायम बनाया। चार वर्ष में तो यह जमीन भी 'ग्लोरिया' जैसी उर्वरा हो गई। इतना अच्छा उत्पादन देखकर 'ओरोविल' के लोगों ने माँग की कि, 'यह तो ऑरोविल के हिस्से की जमीन है। अन्नपूर्णा हमारा है, हमें दे दो।' द्युमान ने इस जमीन में भगीरथ परिश्रम किया था। लाखों रुपये खर्च करके उसे खेती के योग्य बनाया था। अब जब कि जमीन उर्वरा बनकर फसल देने लगी, तब ऑरोविल वासियों ने माँग की, जब जमीन खरीदी तब क्यों नहीं बोले? - ऐसा उनके मन में लग रहा था, फिर भी द्युमान ने पूरी जांच-पड़ताल की, जमीन के नक्शे प्राप्त किये और देखा कि यह जमीन ऑरोविल के हिस्से में नहीं आती थी। उन्होंने श्रीमाताजी के सामने सारा वृत्तांत बताया और कहा कि,।'उनकी यह माँग उचित नहीं है।' पर श्रीमाताजी तो करुणामयी थी, उन्होंने ऑरोविल वासियों पर कृपा बरसायी। यह ' अन्नपूर्णा फार्म' उन्हें मिले इसके लिये द्युमान को कहा, 'अन्नपूर्णा फार्म' उन्हे दे दो। वे लोग भी अपने ही हैं न्? श्रीमाताजी का आदेश द्युमान के लिये

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सर्वस्व था। उन्होंने जरा भी हिचकिचाये बगैर, इतने परिश्रम से सींचकर हराभरा बनाया 'अन्नपूर्णा फार्म' श्रीमाताजी को आज से सहजरूप से दे दिया। इतना ही नहीं श्रीमाताजी ने उन्हें कहा कि,।'ग्लोरिया' की गौशाला का पाँच हजार लीटर दूध भी उन्हें प्रतिदिन दो...। ' इस प्रकार अन्नपूर्णा और दूध दोनों श्रीमाताजी की कृपा से ऑरोविलवासियो को मिले।

जीवन के अन्तिम दिनों तक द्युमान 'ग्लोरिया' के साथ जुड़े रहे। उनके शरीरत्याग के छः दिन पहले, १३ अगस्त १९९२ के दिन।'ग्लोरिया' के इन्चार्ज मनीन्द्र को पत्र में उन्होंने लिखा था, 'यह कैसी विवशता है कि मैं आज, कल और शनिवार को 'ग्लोरिया' नहीं आ सकूँगा! मैं सोमवार को आउँगा। आश्रम का एकाउंट का काम बहुत बड़ा है। चेक और सभी कागज (बिल) बहीखाते में लिखना है। सभी तैयार करके श्रीमाताजी को अर्पण करना है। जबतक यह कार्य समाप्त नहीं हो जाता तबतक मैं फुरसत में नहीं हूँ। ' १५ अगस्त के दर्शन दिवस का संदेश वितरण, अर्पण की निधि का हिसाब, उसका व्यवस्थित लेखन - इन सभी कार्यों के बीच भी वे 'ग्लोरिया' को भूले नहीं थे। 'ग्लोरिया' यह जड़ जमीन में चैतन्य का प्रागटय, द्युमान की साधना की फलश्रुति है। श्रीमाताजी के चरणों में धन, धान्य और फल-फूलों का ढ़ेर कर देने की द्युमान की अभीप्सा का यह मूर्तिमंत स्वरूप है। भगवान के लिये अहंशून्य बनकर समर्पित भाव से किया हुआ काम का कैसा चमत्कारिक परिणाम आता है, इसका 'ग्लोरिया' प्रत्यक्ष दृष्टांत है। यूं भी यह कह सकते हैं कि 'ग्लोरिया' की जमीन के एक एक कण में द्युमान के जगाए हुए चैतन्य का आविर्भाव है।

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